अहसास रिश्‍तों के बनने बिगड़ने का !!!!

एक चटका यहाँ भी

नमस्कार , पंकज मिश्रा आपके साथ .
त्यौहार का मौसम है एक के बाद एक त्यौहार रहे है . और बच्चो में तो जैसे एक चंचलता सी जाती है त्यौहार के दिन नजदीक आते-आते .
हो भी क्यों ना जो स्कूल की छुट्टी मौज मस्ती और खाना पीना नाचना कूदना . सब कुछ तो होता है त्यौहार में.
मै आपको एक कहानी बताता हु जो कि इस त्यौहार को कई घरो में दुहराया जाता है .
शुरुआत करते है नवरात्री के त्यौहार से .
कुंदन जो कि आठ साल का है गुजरात में रहता है. पिताजी एक प्राइवेट कंपनी में मजदूर .
उसे भी हर बच्चे की तरह नवरात्री का बड़े जोर शोर से इंतज़ार रहता है , गरबा खेलने को जो मिलता है . लेकिन उसके साथ कुछ दुर्दशा ही लिखी है .
गरबा देखने या खेलने की इस बार शुल्क लगा दिया गया है गरबा मंडली वालो ने .
कुंदन मन मसोस कर रह जाता है , उसकी माँ किसी तरह उसके पिताजी को मनाती है और
गरबा देखने के लिए कुंदन को पैसे भी मिल जाते है . लेकिन कुंदन के पास अब बात आती है कि कपडे ढंग के होने चाहिए लेकिन ऐसा है नहीं सिर्फ स्कूल का ड्रेस है . फिर भी कुंदन किसी तरह मन मसोस कर ड्रेस पहन कर ही गरबा देखने पहुच जाता है .

लेकिन वहा देखता है तो सभी लोग तरह तरह के रन बिरंगे कपड़ो में सजे धजे रहते है कुंदन के मन में हीन भावना उत्पन्न होती है और वो
गरबा देखना छोड़कर सभी लोगो के कपडे ही देखता रहता है .

सामने चाट पकौडी के ठेले लगे है . सुबह उसने भी पापा से बोला था कि वहा जाउगा तो कुछ तो खाने के लिएखरीदुगा ,

पापा ने जवाब दिया था - जितना वहा तू अकेले खर्चा करेगा उतने में हम किलो दाल लेगे तो दो दिन रोटी का जुगाड़ होगा .

कुंदन ने चाट पकौडे की तरफ से मुह मोड़ लिया ये सोचकर कि ये उसके खाने के लिए नहीं बने है.
सामने से बच्चो का रेला रहा था नाचते कूदते हाथ में गुब्बारे लिए लेकिन चार दिन पहले से नवरात्री पर उछलने वाला कुंदन आज असहाय खडा था परिस्थिती के आगे !!!


ऐसा हमारे बीच होता है हम बेखबर रहते है? या आपने बच्चो में इतने मस्त कि दूसरा दिखाई ना दे .?

9 comments:

  1. Udan Tashtari on September 22, 2009 at 6:08 AM

    क्या कहा जाये..यह तो है!

     
  2. Arvind Mishra on September 22, 2009 at 6:37 AM

    मानव जीवन की यही विसंगतियां हैं !
    गरबा या गर्भा ?

     
  3. ताऊ रामपुरिया on September 22, 2009 at 9:22 AM

    हां भाई कुंदन सरीखे असंख्य बालक हैं जिनको अप्नी भावनाएं मारनी पडती है. ये हमारे समाज की विसंगतियां है जिनको दूर करने के लिये एक इमानदार और सतत प्रयास की जरुरत है. बहुत बढिया लिखा आपने.

    रामराम.

     
  4. डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' on September 22, 2009 at 9:54 AM

    मार्मिक प्रसंग और प्रेरक कथा है।
    बधाई!

     
  5. निर्मला कपिला on September 22, 2009 at 12:33 PM

    ताऊ जी ने सही कहा हर शहर गाँव मे ऐसे कितने कुन्दन हैं संवेदनशील अभिव्यक्ति शुभकामनायें

     
  6. दिगम्बर नासवा on September 22, 2009 at 1:30 PM

    MAARMIK PRASANG LIKHA HAI AAPNE PAR IS BAAT KA KOI SAMAADHAAN NAHI NAZAR AATA .... ANJAANE HI AISI BHOOL SABSE HOTI RAHTI HAI .....

     
  7. Admin on September 22, 2009 at 3:16 PM

    उफ़! अँधेरा हो गया आँखों के आगे

     
  8. ओम आर्य on September 22, 2009 at 3:31 PM

    behad marmik ............urja bhi de rahi hai prena ke maadhayam se.

     
  9. Rakesh Singh - राकेश सिंह on September 23, 2009 at 1:58 AM

    पंकज भाई क्या बताएं ऐसा दृश्य देख कैसा महसूस होता है !

    पहले तो गरीबों के प्रति सहानुभूति रहती थी अब तो वो भी जाती रही है | लगता है मनोरंजन तो सिर्फ और सिर्फ अमीरों और माडर्न लोगों के लिए ही बना है |

     

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साँस लेते हुए भी डरता हूँ! ये न समझें कि आह करता हूँ! बहर-ए-हस्ती में हूँ मिसाल-ए-हुबाब! मिट ही जाता हूँ जब उभरता हूँ! इतनी आज़ादी भी ग़नीमत है! साँस लेता हूँ बात करता हूँ! शेख़ साहब खुदा से डरते हो! मैं तो अंग्रेज़ों ही से डरता हूँ! आप क्या पूछते हैं मेरा मिज़ाज! शुक्र अल्लाह का है मरता हूँ! ये बड़ा ऐब मुझ में है 'yaro'! दिल में जो आए कह गुज़रता हूँ!
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