अहसास रिश्‍तों के बनने बिगड़ने का !!!!

एक चटका यहाँ भी

नमस्कार दोस्तों .

आज सुबह आफिस के लिए निकला तो ट्रेन लेट होने की वजह से कुछ समय रेलवे स्टेशन के पास बने मजदूर चौक पर बिताया और जो देखा उससे मेरी आँखे भर आयी .

हम सभी सुबह तैयार होकर अपने घरो से नौकरी बिजनेश के लिए नकलते है या तो हाथ में टिफिन होगी या तो जेब में कैंटीन का कूपन और दिमाग में काम कि आज मुझे ये-ये निपटाना है और इतने बजे निकलाना है आदि-आदि .


लेकिन दूसरी तरफ हमारे समाज में कुछ ऐसे भी लोग है जिन्हें सिर्फ मजदूर चौक तक पहुचना होता है उनको ये नहीं पता होता कि आज क्या काम करना है , कहाँ जाना है कितने रुपये मिलेगे ?

सभी के हाथों में प्लास्टिक के थैले में लपेटा रोटी और आँखों में बेबसी नजर आती है .


लोग आते है गाडी में से ही बुलाते है और अगर दाम पटा तो लेकर जाते है नहीं तो किसी और मजदूर को खोजेगे .

मामला तो और पेचीदा तब हो जाता है जब कोई आकर बेटे के सामने ही बाप को ले जाने से मना करदेता है ये कहकर कि ये तो बुड्ढा है नहीं चलेगा, तू चल .http://static.squidoo.com/resize/squidoo_images/-1/draft_lens4916962module36180232photo_1243443285Poor-People.jpg

बाप सर झूका लेता है और बेटे को कहता है तू जा मै किसी और के साथ चला जाउगा .
नाबालिग बच्चे लड़किया सभी खड़े रहते है आँखों में एक झूठी चमक लेकर ,

आज मुझे पता चला कि क्यों पहले का कोई राजा महाराजा ये सब देख
कर संन्यास लेकर जंगल चला जाता था . आज भी हमारी स्थिती उतनी नहीं सुधरी है जितना हम सोचते है . आज भी कई जगह सिर्फ दिन भर में रोटी का हिसाब होता है कितने लोग भूखे सो जाते है सिर्फ इसी आश में कि शायद कल कोई उनको भी ले जाए काम पर .


आँखों में लिए सपने , घर से निकल पड़े .!
खुद को कही दूर अँधेरे में छोड़ चले !!
देखना है कब पूरे होते है ये सपने !
जिनको हम अपने से ज्यादा , तवज्जो देते चले !!
बन जाता है चेहरा शुष्क , जब मिलती है गालियाँ !
खिल जाती है बांछे , जब मिलती है तालियाँ !!

पहले दर्द होता था , तो रो लेता था किस्मत के नाम पर !
अब तो किस्मत ,
किस्मत भी मुझे देखकर रास्ता बदल लिए !!


आँखों में लिए सपने , घर से निकल पड़े .!!!!

आज बारी तो थी बोदूराम कि अगली कड़ी लिखने की पर मन भर आया ये सब देखकर . बोदूराम की अगली कड़ी कल प्रकाशीत होगी .

नमस्कार.

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9 comments:

  1. डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' on September 4, 2009 at 4:40 PM

    वाह...वाह...।
    बहुत मार्मिक प्रसंग लगाया है। हम तो अक्सर ही इन नजारों से रूबरू होते हैं।

     
  2. निर्मला कपिला on September 4, 2009 at 6:19 PM

    पहले दर्द होता था , तो रो लेता था किस्मत के नाम पर !
    अब तो किस्मत ,
    किस्मत भी मुझे देखकर रास्ता बदल लिए !
    पंकज जी यही जीवन है मगर निराश हो कर या किस्मत को दोश दे कर नहीं जीया जाता बस इन्सान अगर अपनी संवेदनायें ही ज़ुन्दा रखे तो भी समाज के लिये बहुत कुछ कर सकता है । बहुत मार्मिक विश्य है शुभकामनायें

     
  3. ताऊ रामपुरिया on September 4, 2009 at 6:43 PM

    बहुत मार्मिक आलेख. भाई यही मंजर दिखाई देता है और शायद यही जीवन की सच्चाई है.

    रामराम.

     
  4. ओम आर्य on September 4, 2009 at 6:49 PM

    बहुत ही मार्मिक पोस्ट सही है कई लोग प्रतिदिन भूखे सो जाते होंगे .........इन बातो पर आपनी हालत पर शर्मिन्दगी का एहसास हो रहा है ....हम ऐसे लोगो के लिये कुछ नही कर सकते .......फुट फुटकर रोने को जी कर रहा है....बस और नही लिख सकता

     
  5. Creative Manch on September 4, 2009 at 7:50 PM

    ह्रदयस्पर्शीय पोस्ट
    कौन सोचता है इनके ख़्वाबों के बारे में

    आभार

     
  6. Rakesh Singh - राकेश सिंह on September 4, 2009 at 8:27 PM

    हमारे समाज मैं ऐसे भी वीभत्स दृश्य आम है, किन्तु हम अपनी नजर उधर से हटा लेते हैं |

    आम लोगों का व्यवहार भी मजदूरों से अच्छा नहीं होता, पैसे मैं तो हम पहले से ही कंजूस ठहरे | प्रेम की दो बोली से भी इन्हें वंचित रखा जाता है |

     
  7. Udan Tashtari on September 4, 2009 at 9:22 PM

    ये कैसा यू ट्र्न लेखनी में..बहुत मार्मिक..पसंद आया..जारी रहो!

     
  8. डॉ. महफूज़ अली (Dr. Mahfooz Ali) on September 4, 2009 at 10:27 PM

    अहसास रिश्‍तों के बनने बिगड़ने का ..........

    blog ka title aapne bahut achcha rakha hai.....

    aur prasang bhi bahut hi maarmik hai.....

     
  9. सतीश पंचम on September 5, 2009 at 10:07 AM

    पहले टीवी पर एक नुक्कड नाम का सिरियल आता था। उसमें बैंड बाजा बजाने वाले का एक किरदार था जो उम्र से बूढा हो गया था। लोग बाजा बजाने वाला ढूँढते हुए उसके पास आते हैं और उसे देखकर कहते हैं ये बूढा क्या बाजा बजायेगा। सुनकर उस कैरेक्टर को तकलीफ होती है और वह घर बंद कर बैठ जाता है। तब समूचा नुक्कड उसे उसके प्रति सहानुभूति प्रकट करता है। गुरू, खोपडी, गंजू भिखारी, चौरसिया पान वाला सभी उसके प्रति सद्भावना प्रकट करते हैं । अंत में वह शख्स खुद ही घर के बाहर से निकल आता है और कहता है कि - जब तक पुराने पत्ते झडेंगे नही, नये पत्तों को कौन देखेगा....नये पत्तों के लिये भी तो जगह चाहिये।
    वह कडी आपके इस पोस्ट के जरिये याद आ गई। आपका बताया यह वाकया भी काफी मार्मिक है जिसमें बेटे के सामने ही बाप को काम करने से रोक दिया जाता है।

     

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