नमस्कार ,पंकज मिश्रा !!
मै बहुत बड़ा ज्ञानी तो नहीं हूँ लेकिन जो मै अपने किताब में पढ़ा था वो आप सबसे बाट रहा हु .
राम ने विभीषण की सहायता से रावण को युद्घ भूमी में मार डाला . चारो तरफ राम की जाय-जयकार होने लगी . राम ने लक्षमणकी तरफ देखा और मुस्कराते हुए बोला - लक्षमण रावण बहुत बड़ा विद्वान् और कुशल राजनितिक है , जाकर कुछ राजनीती की विद्या ले लो .
लक्षमण जाकर रावण के सिरहाने खड़े हो गए और बोले कि रावण मुझे राजनीति की शिक्षा दो .
रावण ने पीछे मुड़कर देखा और बोला , तुम्हे कौन भेजा है ?
इतने में राम पीछे से आ गए और रावण के पैरो के पास खड़े होकर बड़े विनम्र शब्दों में हाथ जोड़ते हुए बोले, हे महाराज इसे मैंने आपके पास भेजा है , राजनीति की विद्या लेने .
रावण ने जवाब दिया - देखा लक्षमण अगर किसी से कुछ पाना चाहते हो तो तुम्हे उसके पैरो के पास होना चाहिए ना कि सर के पास .
और हां सही राजनीतिज्ञ वही है जो सही समय पर साम दाम दंड भेद का प्रयोग करे .
लक्षमण ने रावण से प्रश्न किया - अगर आप इतने बड़े ज्ञानी थे तो जानबूझकर राम से बैर क्यों किया ?
रावण - अगर बैर नहीं करता तो मेरी विजय कैसे होती ?
राम आश्चर्य में पड़ गए और बोले कैसे ?
रावण - मै अपने जीते जी आपको अपने लंका नगरी में प्रवेश नहीं करने दिया और आज मै आपके सामने ही आपके बैंकुंठ धाम जा रहा हु . ये है हमारी विजय .
इतना कहकर रावण राम के पैरो में अपना प्राण त्याग दिया .
इति शुभम !!!!!
एक चटका यहाँ भी
11 comments:
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Himanshu Pandey
on
October 1, 2009 at 5:32 AM
खूबसूरत प्रविष्टि । आभार ।
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Arvind Mishra
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October 1, 2009 at 6:33 AM
इस तरह रावन की जीत में उसकी हार भी हो गयी ! इति कथाः !
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Urmi
on
October 1, 2009 at 6:53 AM
वाह बहुत बढ़िया लिखा है आपने! अच्छी और ज्ञानवर्धक जानकारी प्राप्त हुई! विजयादशमी की हार्दिक शुभकामनायें!
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ताऊ रामपुरिया
on
October 1, 2009 at 9:41 AM
भाई आजकल के लोग तो सर की तरफ़ क्या बल्कि सर पर पैर रख कर खडे होते हैं और पूछते हैं."मुर्गी दाना चुगती है या गर्दन पकड कर चुगाऊं?"
रामराम. -
दिगम्बर नासवा
on
October 1, 2009 at 10:21 AM
सच में आज तो दार्शनिक अंदाज़ की पोस्ट है आपकी ......... पर वो भी कमाल की लाजवाब है ..........
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निर्मला कपिला
on
October 1, 2009 at 10:37 AM
्रावण यूँ तो सब वेदों का ग्याता था मगर उसके अंह ने उसे मारा । वो जीत कर भी हार गया ये राम का बडपन था कि उन्हों ने उसे मरते हुये भी सम्मान दिया इस से हमे ये शिक्षा भी मिलती है कि बुरी आदमी मे जो अच्छा भी है उसे ग्रहण कर लेना चाहिये। बुरे से नहीं उसकी बुराई से घृणा करो बहुत अछ्ही पोस्त है शुभकामनायें
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दर्पण साह
on
October 1, 2009 at 1:36 PM
ye pauranik baat kai baar suni aur jitni baar suni acchi lagi...
....Wo satyug tha bhai sa'ab tab khalnayak bhi 'ravan' hote the....
aaj nayak bhi dar ke shahruk khan hain....
'kalyun' ye nahi to aur kya hai? -
ओम आर्य
on
October 1, 2009 at 3:47 PM
DAARSHANIKATA SE OTPROT .....BAHUT HI SUNDAR ....
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डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
on
October 1, 2009 at 4:36 PM
"...मै अपने जीते जी आपको अपने लंका नगरी में प्रवेश नहीं करने दिया और आज मै आपके सामने ही आपके बैंकुंठ धाम जा रहा हु . ये है हमारी विजय .
इतना कहकर रावण राम के पैरो में अपना प्राण त्याग दिया ."
बढ़िया आलेख!
यही सत्य है। -
Naveen Tyagi
on
October 1, 2009 at 9:07 PM
bahut sundar kand ki prastuti ki hai.
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Rakesh Singh - राकेश सिंह
on
October 2, 2009 at 2:29 AM
सत्य वचन ....
बढिया लगा |