एक बार की बात है । एक अत्यन्त गरीब आदमी भोजन की तलाश में टहल रहा था । और लगातार भगवान् को मनाये जा रहा था कि उसे कोई कुछ खाने को दे दे ।
माता पार्वती कैलाश पर्वत के ऊपर बैठकर नीचे पृथ्वी पर हो रही गतिविधियों को देख और उस पर अपने हिसाब से उचित अनुचित का निर्णय मान कर छोड़ दे रही थी ।
अचानक जब माता पार्वती कि निगाह उस गरीब आदमी पर पडी तो सोच में पड़ गयी कि इस आदमी ने ऐसा क्या कर दिया है कि इसको खाने तक के लाले पड़े है ?
तुंरत ही माता भागकर भगवान् शीव के पास गयी और भगवान् से हठ कर बैठी कि इस मानव को कुछ न कुछ आप प्रदान करिए ।
भगवान् शीव ने उत्तर दिया कि , हे देवी मै बहुत कोशीश किया इसे कुछ नही बहुत कुछ देने की पर ये लेता ही नही ।
माता बोली आप मेरे सामने दो मै देखती हु ये कैसे नही लेता है । तुंरत भगवान् शीव ने एक माया रुपी सोने की ईट बनाकर उस गरीब के रस्ते में रख दिया । गरीब भूखा थका हारा चला जा रहा था अचानक उसके दिमाग में आया कि मै तो सिर्फ़ भूखा हु कितने तो भूखे और अंधे दोनों होते है भला वो कैसे अपना जीवन बसर करते है ? यह दिमाग में आते ही उस मानव के अन्दर यह इच्छा जागृत होती है की वो भी अँधा बनाकर कुछ दूर चलेगा और यह आभास करेगा कि अंधे कैसे चलते है । यह सब बातें सोचते-सोचते वह गरीब सोने के ईट के एकदम करीब हो गया । माता पार्वती खुश हो रही थी कि अब वह गरीब उस सोने की ईट को ले लेगा और शंकर जी मंद मंद मुस्करा रहे थे । अचानक ऐसा विचार आते ही कि अंधे कैसे चलते है वह गरीब स्वयं आँखे मुद लेता है तथा उस सोने की ईट को पर कर जाता है । पार्वती माता अपना माथा पीट लेती है और कहती है कि मानव स्वयं ही सब कुछ करता है और स्वयं भोगता है ।
एक चटका यहाँ भी
2 comments:
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ताऊ रामपुरिया
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July 27, 2009 at 10:27 PM
बहुत अच्छा लगा इस प्रसंग को पढना.
रामराम. -
प्रसन्नवदन चतुर्वेदी 'अनघ'
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July 28, 2009 at 8:30 AM
प्रसंग और आप का ब्लाग अच्छा लगा...बहुत बहुत बधाई....
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